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"फोन दो, नहीं तो तुम गंदी हो" वर्चुअल दुनिया में गुम होता बचपन, दादा-दादी के प्यार में छिपा डिजिटल जाल, जानें पूरा मामला

Jaipur News: "दादी हमें फोन देती हैं, तुम नहीं देती, तुम गंदी हो!" प्रीति के लिए ये शब्द किसी तेज छुरी से कम नहीं थे। पति की मौत के बाद वो खुद मानसिक और शारीरिक रूप से कमजोर थीं, लेकिन ये जानकर उनका दिल और टूट गया कि उनके ही बच्चे उनसे दूर हो रहे हैं।

"फोन दो, नहीं तो तुम गंदी हो" वर्चुअल दुनिया में गुम होता बचपन, दादा-दादी के प्यार में छिपा डिजिटल जाल, जानें पूरा मामला

11 साल की परी और 7 साल का अंशु हर दिन स्कूल से आते ही अपने दादा-दादी के पास दौड़ते थे। लेकिन खेलकूद के लिए नहीं, बल्कि उस चमकती स्क्रीन के लिए, जो उनकी असली दुनिया बन चुकी थी। माँ प्रीति जब उन्हें मोबाइल से दूर करने की कोशिश करतीं, तो उन्हें उल्टे बच्चों का गुस्सा झेलना पड़ता।

"दादी हमें फोन देती हैं, तुम नहीं देती, तुम गंदी हो!"

प्रीति के लिए ये शब्द किसी तेज छुरी से कम नहीं थे। पति की मौत के बाद वो खुद मानसिक और शारीरिक रूप से कमजोर थीं, लेकिन ये जानकर उनका दिल और टूट गया कि उनके ही बच्चे उनसे दूर हो रहे हैं।

यूट्यूब पर बच्चे या यूट्यूब के बच्चे?

सबसे बड़ा झटका तब लगा जब प्रीति की भाभी ने उन्हें बताया कि उनके बच्चे यूट्यूब पर वीडियो बना रहे हैं। जब उन्होंने देखा, तो उनकी आँखें फटी रह गईं—बेटी परी कभी इंजेक्शन से खेल रही थी, तो कभी डरावनी चुड़ैल बनकर अभिनय कर रही थी। उन्होंने सास-ससुर से पूछा, लेकिन जवाब था—"बच्चे खुद ही बना रहे हैं, इसमें क्या बुराई है?" पर सच कुछ और था। वीडियो की एंगलिंग से साफ था कि कोई और उन्हें रिकॉर्ड कर रहा था।

बच्चों की परवरिश पर अदालत की चिंता

मामला कोर्ट तक पहुंचा। जज ने जब यूट्यूब वीडियो देखे, तो वे भी हैरान रह गए। ये सिर्फ मासूम मस्ती नहीं थी—बच्चे सोशल मीडिया की दुनिया में खो चुके थे। मां के वकील ने कोर्ट में बताया कि बच्चे सिर्फ स्नैक्स और जंक फूड पर जी रहे थे। बेटे अंशु के हाथों में सूजन थी, और उसे दी जाने वाली दवाइयों की कोई परवाह नहीं की जा रही थी। कोर्ट का फैसला आया—बच्चे माँ को सौंप दिए जाएं।

तकनीक के जाल में बचपन

ये सिर्फ एक परिवार की कहानी नहीं, बल्कि आज के दौर की कड़वी सच्चाई है। सोशल मीडिया पर कंटेंट बनाने की होड़ अब सिर्फ बड़ों तक सीमित नहीं रही, मासूम बच्चे भी इस दौड़ में धकेले जा रहे हैं। कहीं ऐसा न हो कि स्क्रीन की चमक में बच्चों का असली बचपन खो जाए—और जब तक हमें होश आए, तब तक बहुत देर हो चुकी हो !