क्या नई पार्टी बनाने जा रहे है रविंद्र सिंह भाटी ?
बीजेपी युवाओं को मौका नहीं देती तो बनाएंगे नई पार
युवाओं के हक की बात या राजनीतिक महत्वाकांक्षा ?
पार्टी बनने से किसका नफा किसका नुकसान ?

जयपुर। राजस्थान में फिलहाल ना तो विधानसभा चुनाव है और ना ही लोकसभा चुनाव होने वाले है, इसके बावजूद एक निर्दलीय और चर्चित युवा विधायक का नई पार्टी बनाने के ऐलान ने प्रदेश की राजनीति में चर्चाओं का दौर शुरू कर दिया है। निर्दलीय विधायक के नई पार्टी बनाने से राजस्थान की राजनीति में क्या किसी नेता को नफा या नुकसान होने की आशंका है या इसका हश्च भी इससे पहले बनी पार्टियों जैसा होगा। इस पर पड़ताल करती भारत रफ़्तार की यह खास रिपोर्ट।
बाड़मेर के शिव से निर्दलीय विधायक रविंद्र सिंह भाटी ने हाल ही में एक ऐसा संकेत दे दिया है, जिसने जयपुर से दिल्ली तक राजनीतिक गलियारों में हलचल मचा दी है। दरअसल विधायक भाटी ने संकेत दिए हैं कि अगर आगामी चुनावों में बीजेपी युवाओं को टिकट नहीं देती, तो वह अपनी पार्टी बनाकर युवाओं को लॉन्च कर सकते हैं। सुनने में ये बात बेहद लोकतांत्रिक और प्रेरणादायक लगती है, मगर यहां बड़ा सवाल ये है कि क्या ये सच में यह युवाओं की लड़ाई है, या फिर भाटी की कोई सियासी महत्वकांक्षा। हालांकि राजनीति में कुछ भी सिर्फ कहने भर के लिए नहीं होता। हर बयान के पीछे एक बड़ी रणनीति छिपी होती है। रविंद्र सिंह भाटी का ये कदम भी कोई सामान्य कदम नहीं लगता है। यह तय मानकर चलिए कि यदि कुछ ऐसा होता है तो राजस्थान के सियासी समीकरण काफी हद्द तक बदल सकते है। हालांकि प्रदेश में पहले से दो राजनीतिक दल तीसरे मोर्चे के रूप में मजबूती से डटे हुए है और ये है भारत आदिवासी पार्टी और राष्ट्रीय लोकतान्त्रिक पार्टी। भले ही इस पार्टी के एक और दो विधायक ही है, लेकिन इन दोनों ही पार्टियों ने समय-समय पर कांग्रेस और बीजेपी दोनों की मुश्किलें बढ़ाई है। एक और जहां हनुमान बेनीवाल जाट समुदाय की आवाज़ बनकर उभरे हैं वहीं दूसरी और बाप के राजकुमार रोत वागड़ क्षेत्र और आदिवासी समुदाय का नेतृत्व कर रहे हैं। ऐसे में अगर भाटी राजपूत समाज को केंद्र में रखकर अपनी पार्टी खड़ी करते हैं, तो यह पहली बार होगा जब अगड़ी जातियों की कोई मजबूत क्षेत्रीय राजनीतिक आवाज़ सामने आएगी। इसका सीधा-सीधा असर भारतीय जनता पार्टी के परंपरागत वोटबैंक पर पड़ सकता है, क्योंकि बीजेपी अब तक अगड़ों की प्रमुख राजनीतिक प्रतिनिधि रही है। अगर भाटी राजपूत समाज को केंद्र में रखकर एक मजबूत क्षेत्रीय पार्टी की नींव रखते हैं, तो ये राजस्थान की राजनीति में एक नई क्रांति होगी। बीजेपी, जो अब तक अगड़ों की ‘नेचुरल चॉइस’ मानी जाती रही है, उसकी सियासी ज़मीन खिसक सकती है। दूसरी ओर, भाटी को कांग्रेस के वोटबैंक से भी समर्थन मिला है। खासकर मुस्लिम और कुछ अन्य जातियों का। ऐसे में अगर वह कांग्रेस के वोट काटते हैं और बाद में बीजेपी से गठबंधन कर लेते हैं, तो यह बीजेपी के लिए फायदे का सौदा भी बन सकता है। अब कल्पना कीजिए, एक तरफ राजकुमार रोत, जिनके पास आदिवासी क्षेत्रों की दमदार पकड़ है। दूसरी तरफ हनुमान बेनीवाल, जिनकी पकड़ जाट लैंड में आज भी मजबूत है, भले ही उनकी विधानसभा में उपस्थिति ना हो। तीसरी तरफ एक नया नाम—रविंद्र सिंह भाटी, जो अगड़ी जातियों की नई राजनीतिक धुरी बनने का माद्दा रखते हैं। अगर ये तीनों चेहरे अलग-अलग राह पर चलते हैं, तो बीजेपी और कांग्रेस के बीच तीसरा मोर्चा खुद को "विकल्प" कह सकता है। लेकिन अगर इनमें से दो या तीन एकजुट हो जाते हैं, तो राजस्थान में कोई नया राजनीतिक समीकरण जन्म ले सकता है, जो राष्ट्रीय राजनीति में भी हलचल पैदा कर सकता है। वर्तमान में भाटी की छवि एक सशक्त युवा नेता के तौर पर है, जिनके पास निर्दलीय रहते हुए भी बड़ा जनाधार है। लोकसभा चुनाव में भले ही जीते ना हो मगर 6 लाख से ज़्यादा वोट हासिल किए थे जो वाकई एक बड़ा आंकड़ा है। युवा वोटर्स और सोशल मीडिया पर गहरी पकड़ है और यह सब बातें इस ओर इशारा करती हैं कि भाटी महज एक विधायक नहीं, बल्कि एक संभावित जनांदोलन का चेहरा बन सकते हैं। लेकिन असली सवाल तो यहीं है कि क्या रविंद्र सिंह भाटी सचमुच युवाओं की क्रांति लाना चाहते हैं या यह राजनीतिक महत्वाकांक्षा की नई पटकथा है? अगर वह पार्टी बनाते हैं, तो क्या अगड़ी जातियों की राजनीतिक चेतना को एकजुट कर पाएंगे? और इससे सबसे ज्यादा नुकसान किसका होगा—बीजेपी, कांग्रेस, या फिर मौजूदा तीसरे मोर्चे का? यह तो आने वाला समय बताएगा। हालांकि राजस्थान की राजनीति इससे पहले भी कई बार तीसरे मोर्च की हुंकार होती रही, कई बड़े और दिग्गज नेताओं ने इसके लिए कई प्रयास किए, लेकिन कोई सफल नहीं हो पाया।